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------ कई बार जो मन कहता है ,कहना चाहता है --उसके लिए शब्द दुर्लभ हो जाते हैं भाषा नहीं मिलती सिफर होकर भाव गुम हो जाते हैं,जो लिखा होता है,उस हर लिखे शब्द के चेहरे पर सफेदी पुत जाती है-साक्षी भी कोई नहीं होता सिवाय अपने,कुछ --मनश्चेतना की गहराई से नए सिरे से सोचती हूँ जतन से फिर लिखे को सोचती, छूती और जीती हूँ अपने लिखे को जीना ही मेरे लिए सार्थक लिखना होता है 'ताना-बाना' इसी रूप में रूबरू होता रहेगा...